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कविता

ज्यों बूढ़े वनराज पिता

मधु शुक्ला


दादा-दादी के तारे थे, घर के थे सरताज पिता
अलग-थलग रखते थे सबसे, जीने का अंदाज पिता

दरवाजे की चहल-पहल थे चटक धूप के आँगन की
हलचल-सी मच जाती घर में देते जब आवाज पिता

स्‍वाभिमान के साथ उठाकर बोझ भरे पूरे घर का
बाधाएँ सब गए लाँघते ऐसे थे जाँबाज पिता

अंदर ही अंदर सी पी लेते संघर्षों की पीड़ाएँ
नहीं किसी से साझा करते दुख दर्दों के राज पिता

इच्‍छाएँ सारी समेट कर सुविधाएँ सब भेंट चढ़ा
हम सबके सपनों की खातिर उड़ते बन परवाज पिता

साथ तुम्‍हारे संस्‍कार हैं छाया है आशीषों की
सीख तुम्‍हारे आदर्शों की जहाँ खड़ी मैं आज पिता

साथ समय के लगा झाँकने इक सूनापन आँखों में
लगता है रहते हो जैसे खुद से कुछ नाराज पिता

मौन पोथियाँ पलटा करते पिछले कई हिसाबों की
सिमट गए हैं अब कमरे तक ज्‍यों बूढ़े वनराज पिता  
 


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